प्रिये, है ये प्रेम, नहीं है झगड़ा
आओ यूँ सुलझाएँ अपना रगड़ा
जिंदगानी के चंद चार क्षणों में
ऊपर नीचे होते रहना है पलड़ा
करम धरम तो दिखेंगे सबको
चाहे जित्ता डालो उस पे कपड़ा
जब खत्म होगी सुखद होगी
यूँ पीड़ा को रखा हुआ है पकड़ा
जिया है जिंदगी को बहुत रवि
मौत कैसी है ये असली पचड़ा
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Monday, July 7, 2008
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